मुस्लिम आतंकियों के हमलों और कट्टरपंथ सोच के कारण विश्व के कई देशों में भारी विरोध का सामना कर रहे मुस्लिमों की मुसीबतें आस्ट्रेलिया के सिडनी में हुए आतंकी हमले के बाद और बढ़ेंगी। ऑस्ट्रेलिया में जिस तरह से हनुक्का का त्यौहार मना रहे यहूदियों पर चरमपंथी आतंकवाद के नाम पर गोलियां चलाई गईं। ऐसे हमले पूर्व में युरोपीय और दूसरे देशों में हो चुके हैं। न्यू ऑरलियन्स (यूएसए) में जनवरी 1, 2025 को एक व्यक्ति ने ट्रक को पैदल चल रहे लोगों पर चढ़ा दिया और फिर पुलिस से गोलीबारी की। अमरीकी संघीय जांच एजेंसी के मुताबिक यह हमला वैश्विक इस्लामिक आतंकी संगठन आईएसआईएस की प्रेरणा से हुआ था।
इसी तरह फरवरी 22, 2025 को मुलहौज (फ्रांस) एक व्यक्ति ने बाजार में चाकू और पेचकस से हमला किया, जिसमें 1 व्यक्ति मारा गया और कई घायल हुए। फ्रांसीसी अधिकारियों ने इसे इस्लामिक चरमपंथ से प्रेरित बताया था। भारत के पहलगाम में हुआ हमला भी इस्लामिक चरमपंथी आतंकवाद का ही उदाहरण था। यहां 22 अप्रैल को आतंकवादियों ने लोगों से उनके धर्म पूछ-पूछकर उन्हें गोली मारी और सीधा प्रधानमंत्री का नाम लेकर चुनौती दे रहे थे। इस समय यूरोप और पश्चिमी देशों ने निंदा तो की थी लेकिन इस्लामिक आतंकवाद का नाम नहीं लिया था। हालांकि अब यूरोप और अन्य पश्चिमी देशों लोन वुल्फ हमले बढ़ रहे हैं, तो उन्हें ये दर्द समझ आ रहा है।
यूरोप में (रूस को छोड़कर), 1979 से अब तक 209 हमले हुए हैं और 802 लोगों की मौत हुई है। इसी अवधि में सबसे बुरी तरह प्रभावित यूरोपीय देश फ्रांस में 85 इस्लामी आतंकवादी हमले हुए हैं, जिनमें 334 लोगों की मौत हुई है। फ्रांस के अलावा, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, बोस्निया-हर्जेगोविना, बुल्गारिया, क्रोएशिया, साइप्रस, डेनमार्क, फिनलैंड, जर्मनी, ग्रीस, इटली, नीदरलैंड, नॉर्वे, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड और यूनाइटेड किंगडम भी प्रभावित हुए हैं। ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स 2025 रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिमी देशों में घातक हमलों की संख्या 2017 के बाद सबसे अधिक दर्ज की गई। इनमें ज्यादातर लोन वुल्फ (अकेले) हमलावर ही थे। 7 अक्टूबर, 2024 का हमला और बॉन्डी बीच का हमला विशुद्ध तौर पर यहूदियों को निशाना बनाकर किया गया। ऐसे में यूरोप को समझ में आ गया है कि ये किसी एक-दो देश की नहीं बल्कि एक विचारधारा से निपटने की लड़ाई है, जिसके लिए साथ आना ही होगा।
फ़्रांस, जर्मनी, बेल्जियम जैसे देशों में इस्लामिक तत्व हर दूसरे दिन किसी ना किसी बात पर प्रतिकार या दंगे करने लगे हैं। फुटबॉल वर्ल्ड कप मोरक्को जीता तो दंगा हुआ पेरिस में, मोरक्को हारा तो पेरिस जला, जब फ़्रांस फाइनल में हारा तब भी पेरिस में दंगे हुए। इंग्लैंड में भारत पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के बाद प्रवासी भारतीयों पर स्थानीय मुस्लिमों ने हमले किये थे। जांच में यह भी सामने आया था कि अधिकाँश हमलावर और दंगाई इस्लामिक शरणार्थी थे। ऐसे में मेलबर्न से लेकर लंदन और सिडनी से लेकर पेरिस तक में प्रवासियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के कारण वहां की सरकारों को अब इन पर एक्शन लेने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
एक रिपोर्ट के अनुसार इन देशों हाई माइग्रेशन रेट के कारण स्थानीय लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है। लंदन की सड़कों पर लाखों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने एंटी-इमिग्रेशन मार्च निकाला और इस्लाम और ब्रिटेन में बढ़ती प्रवासन समस्या का मुद्दा उठाया। ब्रिटेन में पिछले साल 29 जुलाई को एक्सेल ने साउथपोर्ट में चल रही एक डांस क्लास में घुस कर कई बच्चियों को बेरहमी से चाकू मार दिया था। हमलावर ने तीन बच्चियों की हत्या कर दी थी और 10 अन्य को घायल कर दिया था। इनमें ज्यादातर बच्चे थे। हमलावर मुस्लिम था। आरोपी एक्सेल के मां-बाप रवांडा से आए थे। घटना के बाद ब्रिटेन में बहुत बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए थे।
ब्रिटेन में बढ़ती मुस्लिम आबादी भी एक बड़ा मुद्दा है। अनुमान है कि साल 2035 तक ब्रिटेन की कुल आबादी में 25% मुस्लिम हो सकते हैं। ऐसे आतंकी हमलों और मुस्लिमों की बढ़ती आबादी के खिलाफ प्रदर्शनकारी ब्रिटेन में अवैध अप्रवासन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। इनकी मांग है कि अवैध अप्रवासियों को देश से बाहर किया जाए। इस साल 28 हजार से ज्यादा प्रवासी इंग्लिश चैनल के रास्ते नावों से ब्रिटेन पहुंचे हैं। प्रदर्शन में शामिल लोग अवैध अप्रवासियों को शरण दिए जाने के खिलाफ हैं। हाल ही में एक इथियोपियाई अप्रवासी ने 14 साल की लड़की का यौन उत्पीड़न किया था, जिसने लोगों के गुस्से को और बढ़ावा दिया है। सरकार और पुलिस पर आरोप कि वे अवैध आव्रजन पर नकेल कसने में असफल हैं।
मुस्लिम शरणार्थी युरोपीय देशों के लिए सिरदर्द बन गए हैं। गिड़गिड़ाते हुए लाचार हालत में शरण लेने आए शरणार्थी अब इस्लाम और शरिया लागू करने के लिए धरने—प्रदर्शन कर रहे हैं। जर्मनी के हैम्बर्ग में 2000 से अधिक मुसलमानों ने रैली निकाली। इस दौरान उन्होंने इस्लामवादी खिलाफत और शरिया कानून लागू करने की मांग की। रैली में शामिल भीड़ ने अल्लाहू अकबर का नारा भी लगाया। जर्मनी में बहुसंख्यक आबादी ईसाई है, जबकि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। इन मुसलमानों में सबसे ज्यादा वो थे, जो अफ्रीकी और एशियाई देशों से शरण मांगने के लिए जर्मनी पहुंचे थे। हालांकि, नागरिकता मिलते ही उनके तेवर बदल गए और अब मूल आबादी को दबाने की कोशिश कर रहे हैं।
इसी इस्लामिक आतंकवाद के दंश से व्यथित हो लगभग 13 लाख लोग यूरोप में शरण लेने को विवश हुए थे, यह दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात सबसे बड़ी शरणार्थी समस्या थी। शुरुआत में शरण लेने वाले अधिकाँश सीरियाई थे, लेकिन बाद में बड़ी संख्या में अफगान, नाइजीरियाई, पाकिस्तानी, इराकी और इरिट्रिया, और बाल्कन के आर्थिक प्रवासी भी इस यूरोप में शरण लेने को विवश हुए थे। यूरोप में अब तक 78,000 शरणार्थी और आप्रवासी आए हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार उनमें से आधे से ज्यादा ग्रीस पहुंचे हैं। उनमें 40 प्रतिशत परिवार अफगानिस्तान से हैं जबकि 20 प्रतिशत सीरिया से हैं।
यही वजह है कि इन देशों में चरमपंथी मुस्लिमों की हरकतों की वजह से पाबंदी लगाई जा रही हैं। दक्षिण-पूर्वी स्पेन के मर्सिया क्षेत्र के शहर जुमिला में लोकल काउंसिल ने ईद-उल-फितर और ईद-उल-अजहा जैसे मुस्लिम त्योहारों को सिविक सेंटर्स और स्पोर्ट्स हॉल जैसी सार्वजनिक जगहों में मनाए जाने पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित किया। कट्टर इस्लामिक तत्वों ने बेल्जियम और स्वीडन जैसे शांतिप्रिय देशों में माहौल खराब कर दिया है। मुसलमानों ने इन देशों में अतिरिक्त अधिकारों की मांग की, सड़कें जाम की, सड़कों पर नमाज पढ़ कर शक्ति प्रदर्शन किया। वहीं दूसरी और ऐसी घटनाओं से स्थानीय यूरोपीय नागरिकों के मन में असुरक्षा की भावना घर कर गयी। यह निश्चित है कि सिडनी में हुई आतंकी घटना के दूरगामी परिणाम भी बेकसूर मुसलमानों को भुगतने पड़ेंगे।
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सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश पर्व इस वर्ष 27 दिसंबर को मनाया जा रहा है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 1667 ई. में पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को 1723 विक्रम संवत् को पटना साहिब में हुआ था। प्रतिवर्ष इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह का प्रकाशोत्सव मनाया जाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी को बचपन में गोबिंद राय के नाम से जाना जाता था। उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिखों के 9वें गुरु थे। पटना में रहते हुए गुरू जी तीर-कमान चलाना, बनावटी युद्ध करना इत्यादि खेल खेला करते थे, जिस कारण बच्चे उन्हें अपना सरदार मानने लगे थे। पटना में वे केवल 6 वर्ष की आयु तक ही रहे और सन् 1673 में सपरिवार आनंदपुर साहिब आ गए। यहीं पर उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, संस्कृत, बृज, फारसी भाषाएं सीखने के साथ घुड़सवारी, तीरंदाजी, नेजेबाजी इत्यादि युद्धकलाओं में भी महारत हासिल की। कश्मीरी पंडितों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए उनके पिता और सिखों के 9वें गुरु तेग बहादुर जी द्वारा नवम्बर 1975 में दिल्ली के चांदनी चौक में शीश कटाकर शहादत दिए जाने के बाद मात्र 9 वर्ष की आयु में ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों के 10वें गुरू पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाली और खालसा पंथ के संस्थापक बने।
शौर्य, साहस, त्याग और बलिदान के सच्चे प्रतीक तथा इतिहास को नई धारा देने वाले अद्वितीय, विलक्षण और अनुपम व्यक्तित्व के स्वामी गुरु गोबिंद सिंह जी को इतिहास में एक विलक्षण क्रांतिकारी संत व्यक्तित्व का दर्जा प्राप्त है। वे कहते थे कि किसी भी व्यक्ति को न किसी से डरना चाहिए और न ही दूसरों को डराना चाहिए। उन्होंने समाज में फैले भेदभाव को समाप्त कर समानता स्थापित की थी और लोगों में आत्मसम्मान तथा निडर रहने की भावना पैदा की। एक आध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ वे एक निर्भयी योद्धा, कवि, दार्शनिक और उच्च कोटि के लेखक भी थे। उन्हें विद्वानों का संरक्षक भी माना जाता था। दरअसल कहा जाता है कि 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति सदैव उनके दरबार में बनी रहती थी और इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की थी।
‘बिचित्र नाटक’ को गुरु गोबिंद सिंह की आत्मकथा माना जाता है, जो उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह ‘दशम ग्रंथ’ का एक भाग है, जो गुरु गोबिंद सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। इस दशम ग्रंथ की रचना गुरू जी ने हिमाचल के पोंटा साहिब में की थी। कहा जाता है कि एक बार गुरु गोबिंद सिंह अपने घोड़े पर सवार होकर हिमाचल प्रदेश से गुजर रहे थे और एक स्थान पर उनका घोड़ा अपने आप आकर रुक गया। उसी के बाद से उस जगह को पवित्र माना जाने लगा और उस जगह को पोंटा साहिब के नाम से जाना जाने लगा। दरअसल ‘पोंटा’ शब्द का अर्थ होता है ‘पांव’ और जिस जगह पर घोड़े के पांव अपने आप थम गए, उसी जगह को पोंटा साहिब नाम दिया गया। गुरु जी ने अपने जीवन के चार वर्ष पोंटा साहिब में ही बिताए, जहां अभी भी उनके हथियार और कलम रखे हैं।
1699 में बैसाखी के दिन तख्त श्री केसगढ़ साहिब में कड़ी परीक्षा के बाद पांच सिखों को ‘पंज प्यारे’ चुनकर गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, जिसके बाद प्रत्येक सिख के लिए कृपाण या श्रीसाहिब धारण करना अनिवार्य कर दिया गया। वहीं पर उन्होंने ‘खालसा वाणी’ भी दी, जिसे ‘वाहे गुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह’ कहा जाता है। उन्होंने जीवन जीने के पांच सिद्धांत दिए थे, जिन्हें ‘पंच ककार’ (केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा) कहा जाता है। गुरु गोबिंद सिंह ने ही ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को सिखों के स्थायी गुरु का दर्जा दिया था। सन् 1708 में गुरु गोबिंद सिंह ने महाराष्ट्र के नांदेड़ में शिविर लगाया था। वहां जब उन्हें लगा कि अब उनका अंतिम समय आ गया है, तब उन्होंने संगतों को आदेश दिया कि अब गुरु ग्रंथ साहिब ही आपके गुरु हैं। गुरु जी का जीवन दर्शन था कि धर्म का मार्ग ही सत्य का मार्ग है और सत्य की हमेशा जीत होती है। वे कहा करते थे कि मनुष्य का मनुष्य से प्रेम ही ईश्वर की भक्ति है, अतः जरूरतमंदों की मदद करो। अपने उपदेशों में उनका कहना था कि ईश्वर ने मनुष्यों को इसलिए जन्म दिया है ताकि वे संसार में अच्छे कर्म करें और बुराई से दूर रहें।
उन्होंने कई बार मुगलों को परास्त किया। आनंदपुर साहिब में तो मुगलों से उनके संघर्ष और उनकी वीरता का स्वर्णिम इतिहास बिखरा पड़ा है। सन् 1700 में दस हजार से भी ज्यादा मुगल सैनिकों को सिख जांबाजों के सामने मैदान छोड़कर भागना पड़ा था और गुरु जी की सेना ने 1704 में मुगलों के अलावा उनका साथ दे रहे पहाड़ी हिन्दू शासकों को भी करारी शिकस्त दी थी। मुगल शासक औरंगजेब की भारी-भरकम सेना को भी आनंदपुर साहिब में दो-दो बार धूल चाटनी पड़ी थी। गुरु गोबिंद सिंह के चारों पुत्र अजीत सिंह, फतेह सिंह, जोरावर सिंह और जुझार सिंह भी उन्हीं की भांति बेहद निडर और बहादुर योद्धा थे। अपने धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से लड़ते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पूरे परिवार का बलिदान कर दिया था। उनके दो पुत्रों बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह ने चमकौर के युद्ध में शहादत प्राप्त की थी। 26 दिसम्बर 1704 को गुरु गोबिंद सिंह के दो अन्य साहिबजादों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करने पर सरहिंद के नवाब द्वारा दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया था और माता गुजरी को किले की दीवार से गिराकर शहीद कर दिया गया था। गुरु गोबिंद सिंह ने 7 अक्टूबर 1708 को महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित श्री हुजूर साहिब में अपने प्राणों का त्याग किया था।
- योगेश कुमार गोयल
(लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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