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Prabhasakshi NewsRoom: Silo क्षेत्रों के बारे में जानते हैं आप? यहाँ सौ से अधिक अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें तैनात कर चुका है China, दुनिया की उड़ी नींद

अमेरिकी रक्षा विभाग की एक मसौदा रिपोर्ट ने वैश्विक सामरिक संतुलन पर गहरी चिंता पैदा कर दी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन साइलो क्षेत्रों में सौ से अधिक अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें तैनात कर चुका है या ऐसा करने की प्रक्रिया में है। बताया जा रहा है कि यह तैनाती मंगोलिया सीमा के पास स्थित इलाकों में की गई है। रिपोर्ट का साफ संकेत है कि बीजिंग न केवल अपने परमाणु शस्त्रागार का तीव्र विस्तार कर रहा है बल्कि हथियार नियंत्रण से जुड़ी किसी भी व्यापक बातचीत में उसकी कोई रुचि नहीं दिख रही।

हम आपको बता दें कि शिकागो स्थित बुलेटिन ऑफ द एटॉमिक साइंटिस्ट्स के अनुसार चीन इस समय दुनिया की किसी भी अन्य परमाणु शक्ति की तुलना में अपने हथियार भंडार का विस्तार और आधुनिकीकरण सबसे तेज गति से कर रहा है। हालांकि बीजिंग ने इन रिपोर्टों को चीन को बदनाम करने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गुमराह करने की कोशिश करार दिया है। चीन के वाशिंगटन स्थित दूतावास का कहना है कि उसका परमाणु सिद्धांत पूरी तरह रक्षात्मक है और उसकी परमाणु क्षमता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए न्यूनतम स्तर पर ही रखी गई है।

वहीं अमेरिकी संस्था की मसौदा रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन ने ठोस ईंधन वाली डीएफ 31 मिसाइलों को साइलो में तैनात किया है। बताया जा रहा है कि पहले इन साइलो क्षेत्रों के अस्तित्व की जानकारी दी गई थी लेकिन मिसाइलों की संख्या पहली बार सामने आई है। जहां तक यह सवाल है कि साइलो क्षेत्र क्या हैं तो आपको बता दें कि साइलो क्षेत्र वे विशेष सैन्य इलाके होते हैं जहां जमीन के भीतर गहरे और मजबूत ढांचे बनाए जाते हैं ताकि लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलों को छिपाकर सुरक्षित रखा और जरूरत पड़ने पर दागा जा सके। साइलो शब्द का अर्थ ही होता है भंडारण की सुरक्षित जगह लेकिन सैन्य संदर्भ में इसका मतलब अत्यधिक संरक्षित भूमिगत मिसाइल ठिकानों से है।

साइलो आमतौर पर मोटे कंक्रीट और स्टील से बने होते हैं। ये जमीन के नीचे कई मीटर गहराई में होते हैं ताकि हवाई हमले या परमाणु विस्फोट के झटके भी इन्हें तुरंत नष्ट न कर सकें। ऊपर से देखने पर ये साधारण ढांचे या ढके हुए गड्ढ़ों जैसे दिखाई देते हैं लेकिन अंदर मिसाइल लांच करने की पूरी व्यवस्था होती है। इनका मुख्य उद्देश्य परमाणु हथियारों की विश्वसनीयता और प्रतिरोध क्षमता बनाए रखना है। यदि किसी देश पर अचानक हमला हो जाए तो भी साइलो में रखी मिसाइलें सुरक्षित रह सकें और जवाबी हमला किया जा सके। इसी को परमाणु रणनीति में सेकंड स्ट्राइक क्षमता कहा जाता है।
 

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साइलो क्षेत्र दुश्मन के लिए सबसे बड़ी चुनौती होते हैं क्योंकि इन्हें नष्ट करने के लिए अत्यधिक सटीक और शक्तिशाली हथियारों की जरूरत होती है। जब कोई देश दर्जनों या सैंकड़ों साइलो बना लेता है तो दुश्मन के लिए यह तय करना कठिन हो जाता है कि कौन-सा साइलो सक्रिय है और कौन-सा खाली। इसे रणनीतिक भ्रम और प्रतिरोध का मजबूत साधन माना जाता है। साथ ही साइलो क्षेत्रों का विस्तार यह संकेत देता है कि कोई देश केवल रक्षा नहीं बल्कि दीर्घकालीन रणनीतिक दबदबा चाहता है। जितने अधिक साइलो होंगे उतनी ही ज्यादा मिसाइलें तैनात की जा सकती हैं और उतनी ही जटिल हो जाती है वैश्विक परमाणु गणना। संक्षेप में कहा जाये तो साइलो क्षेत्र परमाणु युद्ध की अदृश्य रीढ़ होते हैं।

हम आपको यह भी बता दें कि पेंटागन की रिपोर्ट के अनुसार 2024 में चीन के परमाणु वारहेड की संख्या छह सौ के आसपास थी लेकिन 2030 तक यह संख्या एक हजार से अधिक होने की दिशा में बढ़ रही है। यह तथ्य इस मायने में महत्वपूर्ण है क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में संकेत दिया था कि वह चीन और रूस के साथ परमाणु निरस्त्रीकरण पर काम कर सकते हैं लेकिन पेंटागन की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि बीजिंग की ओर से ऐसी किसी पहल के लिए कोई उत्सुकता नहीं दिखती। रिपोर्ट के अनुसार चीन ताइवान के खिलाफ 2027 तक युद्ध जीतने की क्षमता हासिल करने की तैयारी कर रहा है। इसमें दूर समुद्री इलाकों तक सटीक हमलों की योजना भी शामिल है जिससे एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी मौजूदगी को गंभीर चुनौती मिल सकती है।

देखा जाये तो यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है जब अमेरिका और रूस के बीच न्यू स्टार्ट संधि समाप्ति की कगार पर है। विशेषज्ञों को आशंका है कि इस संधि के खत्म होने से अमेरिका रूस और चीन के बीच त्रिपक्षीय परमाणु हथियार दौड़ और तेज हो सकती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा चलाई जा रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और रक्षा उद्योग को झकझोर दिया है। अल्पकाल में इससे सैन्य तत्परता प्रभावित हो सकती है लेकिन दीर्घकाल में इसे सैन्य सुधार की जमीन तैयार करने वाला कदम बताया गया है।

देखा जाये तो चीन की यह परमाणु छलांग उसके इरादों की घोषणा है। बीजिंग अब खुद को एक क्षेत्रीय शक्ति से उठाकर पूर्ण वैश्विक सामरिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित करना चाहता है। सौ से अधिक आईसीबीएम का साइलो में जाना यह बताता है कि चीन अब केवल न्यूनतम प्रतिरोध की नीति पर नहीं चल रहा बल्कि वह विश्व की प्रमुख परमाणु शक्तियों के बराबर खड़ा होना चाहता है।

साथ ही हथियार नियंत्रण वार्ता से दूरी चीन की रणनीतिक सोच को और स्पष्ट करती है। बातचीत से बचना दरअसल समय टालने की चाल है ताकि बिना किसी अंतरराष्ट्रीय बंधन के शस्त्रागार को भरपूर आकार दिया जा सके। न्यू स्टार्ट संधि के समाप्त होने की पृष्ठभूमि में यह रुख दुनिया को एक नए और खतरनाक परमाणु युग की ओर धकेल सकता है।

इसके अलावा, ताइवान को लेकर आक्रामक सैन्य तैयारी इस पूरी तस्वीर का दूसरा खतरनाक पहलू है। परमाणु क्षमता का विस्तार केवल अमेरिका या रूस को संदेश देने के लिए नहीं है बल्कि यह एशिया में किसी भी संभावित संघर्ष को परमाणु साये में लाने की तैयारी है। यदि पारंपरिक युद्ध परमाणु प्रतिरोध के कवच में लिपटा हो तो क्षेत्रीय तनाव वैश्विक संकट में बदलने में देर नहीं लगती।

भारत जैसे देशों के लिए यह स्थिति चेतावनी की घंटी है। एशिया में शक्ति संतुलन तेजी से बदल रहा है और चीन का यह विस्तार केवल दूर देशों का मसला नहीं है। सीमा विवाद, समुद्री प्रतिस्पर्धा और रणनीतिक दबाव सब एक ही धागे से जुड़ते जा रहे हैं। ऐसे में सतर्कता, रणनीतिक स्पष्टता और मजबूत प्रतिरोध ही एकमात्र रास्ता है।

बहरहाल, चीन की परमाणु महत्वाकांक्षा दरअसल एक संदेश है कि आने वाला दशक कूटनीति से ज्यादा शक्ति प्रदर्शन का हो सकता है। दुनिया को तय करना होगा कि वह इस आक्रामक विस्तार को मौन स्वीकृति देती है या सामूहिक दबाव और संतुलन के जरिए इसे रोकने की कोशिश करती है। वरना इतिहास गवाह है कि जब हथियार बोलने लगते हैं तो विवेक सबसे पहले खामोश हो जाता है।

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